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यू॒यं दे॑वाः॒ प्रम॑तिर्यू॒यमोजो॑ यू॒यं द्वेषां॑सि सनु॒तर्यु॑योत। अ॒भि॒क्ष॒त्तारो॑ अ॒भि च॒ क्षम॑ध्वम॒द्या च॑ नो मृ॒ळय॑ताप॒रं च॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yūyaṁ devāḥ pramatir yūyam ojo yūyaṁ dveṣāṁsi sanutar yuyota | abhikṣattāro abhi ca kṣamadhvam adyā ca no mṛḻayatāparaṁ ca ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यू॒यम्। दे॒वाः॒। प्रऽम॑तिः। यू॒यम्। ओजः॑। यू॒यम्। द्वेषां॑सि। स॒नु॒तः। यु॒यो॒त॒। अ॒भि॒ऽक्ष॒त्तारः॑। अ॒भि। च॒। क्षम॑ध्वम्। अ॒द्य। च॒। नः॒। मृ॒ळय॑त। अ॒प॒रम्। च॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:29» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:11» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देवाः) विद्वानो ! (यूयम्) तुम जो (प्रमतिः) उत्तम बुद्धि है उसको (च) और (यूयम्) तुम (ओजः) पराक्रम को (सनुतः) निरन्तर (युयोत) ग्रहण करो। (यूयम्) तुम (द्वेषांसि) द्वेषयुक्त कर्मों को निरन्तर पृथक् करो (अद्य) इस समय (नः) हमको (अपरम्) (च) और जीवसमूह को (मृळयत) सुखी करो। (अभिक्षत्तारः) सम्मुख योग करनेवाले तुम लोग हमारे अपराध को (अभि,क्षमध्वम्) सब प्रकार क्षमा करो ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् लोग द्वेष को छोड़ के निरन्तर बुद्धि की उन्नति करते, दूसरे के अपराधों को क्षमा करते और सबको सुखी करते हैं, वे इस जगत् में सत्कार के योग्य होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे देवा यूयं या प्रमतिस्तां यूयमोजश्च सनुतर्युयोत यूयं द्वेषांसि सनुतर्युयोताऽद्य नोऽपरञ्च मृळयताऽभिक्षत्तारो यूयं नोऽपराधं चाभिक्षमध्वम् ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यूयम्) (देवाः) (प्रमतिः) प्रकृष्टा प्रज्ञा (यूयम्) (ओजः) पराक्रमम् (यूयम्) (द्वेषांसि) द्वेषयुक्तानि कर्माणि (सनुतः) नैरन्तर्ये (युयोत) गृह्णीत वा पृथक्कुरुत (अभिक्षत्तारः) आभिमुख्ये योगस्य कर्त्तारः (अभि) (च) (क्षमध्वम्) (अद्य) इदानीम्। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः (च) (नः) अस्मान् (मृळयत) सुखयत (अपरम्) जीवसमूहम् (च) ॥२॥
भावार्थभाषाः - ये विद्वांसो द्वेषं विहाय सततं बुद्धिमुन्नयन्त्यन्येषामपराधं क्षमन्ते सर्वान् सुखयन्ति च तेऽत्र सत्कर्त्तव्या भवन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे विद्वान लोक द्वेष सोडून निरंतर बुद्धीची उन्नती करतात, दुसऱ्याच्या अपराधाला क्षमा करतात व सर्वांना सुखी करतात ते या जगात सत्कार करण्यायोग्य असतात. ॥ २ ॥